हिंदी के साहित्यिक संगठन और उनके योगदान – नोट्स
हिंदी साहित्य के विकास और प्रसार में विभिन्न साहित्यिक संगठनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन संगठनों ने न केवल हिंदी भाषा और साहित्य को संरक्षण प्रदान किया, बल्कि उसके मानकीकरण, प्रचार-प्रसार और नए लेखकों को प्रोत्साहन देने में भी अहम भूमिका निभाई।
1. प्रमुख साहित्यिक संगठन और उनके योगदान
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1. नागरी प्रचारिणी सभा, काशी
स्थापना: 1893 ई. (काशी)
संस्थापक: बाबू श्यामसुंदर दास, पंडित रामनारायण मिश्र, शिवकुमार सिंह।
उद्देश्य: हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रचार-प्रसार, हिंदी साहित्य का संरक्षण और संवर्धन।
प्रमुख योगदान:
- ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का प्रकाशन।
- ‘हिंदी शब्दसागर’ जैसे विशाल कोश का निर्माण।
- प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की खोज और उनका प्रकाशन।
- हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका।
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2. हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
स्थापना: 1910 ई. (प्रयाग)
संस्थापक: मदन मोहन मालवीय (प्रथम अध्यक्ष), पुरुषोत्तम दास टंडन।
उद्देश्य: हिंदी भाषा और साहित्य का प्रचार-प्रसार, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयास।
प्रमुख योगदान:
- ‘सम्मेलन पत्रिका’ का प्रकाशन।
- हिंदी परीक्षाओं का आयोजन (जैसे प्रथमा, मध्यमा, उत्तमा)।
- हिंदी साहित्य के विकास के लिए विभिन्न संगोष्ठियों और सम्मेलनों का आयोजन।
- हिंदी को राजभाषा बनाने के आंदोलन में अग्रणी भूमिका।
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3. साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
स्थापना: 1954 ई. (भारत सरकार द्वारा स्थापित)
उद्देश्य: भारतीय भाषाओं में साहित्य के विकास को बढ़ावा देना, साहित्य के उच्च मानकों को स्थापित करना, साहित्यिक गतिविधियों का समन्वय करना।
प्रमुख योगदान:
- प्रतिवर्ष 24 भारतीय भाषाओं में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान करना। यह भारत में साहित्य के क्षेत्र में दिया जाने वाला दूसरा सबसे बड़ा पुरस्कार है।
- विभिन्न भारतीय भाषाओं के महत्वपूर्ण ग्रंथों का हिंदी में और हिंदी ग्रंथों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
- ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ और ‘इंडियन लिटरेचर’ जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन।
- साहित्यिक संगोष्ठियों, कार्यशालाओं और प्रदर्शनियों का आयोजन।
पुरस्कार: साहित्य अकादमी पुरस्कार (भारत में साहित्य का दूसरा सर्वोच्च सम्मान)
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4. भारतीय ज्ञानपीठ
स्थापना: 1944 ई. (साहू शांतिप्रसाद जैन और श्रीमती रमा जैन द्वारा)
उद्देश्य: भारतीय साहित्य के विकास को बढ़ावा देना, विशेष रूप से ज्ञानपीठ पुरस्कार के माध्यम से।
प्रमुख योगदान:
- ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ (1965 से) प्रदान करना, जो भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार है। (प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता: जी. शंकर कुरुप, मलयालम; हिंदी के प्रथम विजेता: सुमित्रानंदन पंत, 1968)
- विभिन्न भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का प्रकाशन।
- शोध और अध्ययन को बढ़ावा देना।
पुरस्कार: ज्ञानपीठ पुरस्कार (भारतीय साहित्य का सर्वोच्च सम्मान)
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5. केंद्रीय हिंदी निदेशालय
स्थापना: 1960 ई. (भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन)
उद्देश्य: हिंदी के विकास, प्रचार-प्रसार और मानकीकरण के लिए कार्य करना।
प्रमुख योगदान:
- देवनागरी लिपि का मानकीकरण और हिंदी वर्तनी का निर्धारण।
- विभिन्न विषयों के लिए पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण।
- हिंदी शिक्षण सामग्री का विकास और प्रकाशन।
- हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न योजनाएँ और कार्यक्रम।
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6. केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
स्थापना: 1961 ई. (भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन)
उद्देश्य: हिंदी के शिक्षण-प्रशिक्षण, अनुसंधान और प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करना, विशेषकर अहिंदी भाषी क्षेत्रों और विदेशों में।
प्रमुख योगदान:
- हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रम (अध्यापकों के लिए)।
- हिंदी भाषा शिक्षण से संबंधित अनुसंधान।
- विभिन्न देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र स्थापित करना।
- हिंदी शिक्षण सामग्री का विकास।
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7. प्रगतिशील लेखक संघ
स्था स्थापना: 1936 ई. (लखनऊ में प्रथम अधिवेशन, प्रेमचंद की अध्यक्षता में)
उद्देश्य: साहित्य को जीवन के यथार्थ से जोड़ना, सामाजिक शोषण और असमानता के विरुद्ध आवाज़ उठाना, प्रगतिवादी विचारों का प्रचार करना।
प्रमुख योगदान:
- प्रगतिवादी साहित्य को बढ़ावा दिया।
- लेखकों को सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास कराया।
- प्रेमचंद, यशपाल, नागार्जुन जैसे लेखकों को मंच प्रदान किया।
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8. भारतीय लेखक संघ (अखिल भारतीय लेखक संघ)
स्थापना: 1950 के दशक में
उद्देश्य: भारतीय भाषाओं के लेखकों को एक मंच पर लाना, उनके अधिकारों की रक्षा करना, साहित्य के विकास को बढ़ावा देना।
प्रमुख योगदान:
- लेखकों के हितों की रक्षा।
- साहित्यिक आदान-प्रदान को बढ़ावा।
- विभिन्न साहित्यिक मुद्दों पर विचार-विमर्श।
निष्कर्ष
ये साहित्यिक संगठन हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के स्तंभ रहे हैं। इन्होंने न केवल हिंदी को एक मानक रूप प्रदान किया, बल्कि उसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनके निरंतर प्रयासों से हिंदी साहित्य आज भी समृद्ध हो रहा है।