उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में कत्यूरी शासन के पतन के बाद विभिन्न छोटे-छोटे गढ़ों (ठकुराइयों) का उदय हुआ। इन्हीं परिस्थितियों में पंवार (या परमार) राजवंश ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना की, जिसने गढ़वाल के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी।
पंवार (परमार) शासन (Panwar/Parmar Dynasty)
- पंवार राजवंश ने गढ़वाल पर लगभग 688/888 ई. से 1949 ई. तक शासन किया (संस्थापक के समय को लेकर विभिन्न मत)।
- इनकी प्रारंभिक राजधानी चाँदपुरगढ़ (चमोली) थी, जिसे बाद में देवलगढ़, फिर श्रीनगर (पौड़ी) और अंततः टिहरी स्थानांतरित किया गया।
- पंवार शासकों ने “शाह” की उपाधि धारण की, जो उन्हें दिल्ली सल्तनत/मुगल शासकों द्वारा प्रदान की गई थी।
- इस वंश के कुल 60 शासक माने जाते हैं (सुदर्शन शाह के बाद टिहरी रियासत के शासकों सहित)।
उत्पत्ति और स्थापना
पंवार वंश की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत हैं:
- गुजरात/धार से आगमन: एक प्रमुख मत के अनुसार, पंवार शासक गुजरात के धार (मालवा) क्षेत्र से आए थे।
- संस्थापक: कनकपाल को पंवार वंश का संस्थापक माना जाता है। माना जाता है कि वे तीर्थयात्रा पर गढ़वाल आए और तत्कालीन गढ़पतियों में से एक, चाँदपुरगढ़ के शासक भानुप्रताप (सोनपाल) ने अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर उन्हें अपना राज्य सौंप दिया।
- स्थापना का समय: विभिन्न स्रोतों के अनुसार 688 ई. या 888 ई.।
- प्रारंभिक राजधानी: चाँदपुरगढ़ (चमोली जिले में)।
प्रमुख पंवार शासक और उनकी उपलब्धियाँ
1. कनकपाल
- पंवार वंश का संस्थापक।
- राजधानी: चाँदपुरगढ़।
2. अजयपाल (37वाँ शासक, 1490-1519 ई.)
- पंवार वंश का वास्तविक संस्थापक और सबसे शक्तिशाली प्रारंभिक शासक माना जाता है।
- इन्होंने गढ़वाल के 52 गढ़ों (ठकुराइयों) को जीतकर एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना की।
- राजधानी को चाँदपुरगढ़ से देवलगढ़ (1512 ई.) और फिर श्रीनगर (1517 ई.) स्थानांतरित किया।
- देवलगढ़ में राजराजेश्वरी मंदिर और श्रीनगर में कालिका देवी मठ की स्थापना की।
- सरोला ब्राह्मणों की नियुक्ति और धूली पाथा (माप की इकाई) का प्रचलन किया।
- इन्हें “गढ़वाल का अशोक” भी कहा जाता है।
3. सहजपाल (42वाँ शासक, 1547-1575 ई.)
- मुगल सम्राट अकबर के समकालीन थे।
- इनके समय के रघुनाथ मंदिर (देवप्रयाग) के लेख और जहांगीरनामा में इनका उल्लेख मिलता है।
4. बलभद्र शाह (43वाँ शासक, 1575-1591 ई.)
- यह “शाह” की उपाधि धारण करने वाला पंवार वंश का प्रथम शासक था। यह उपाधि इन्हें लोदी सुल्तानों या मुगलों द्वारा दी गई मानी जाती है।
- ग्वालदम का युद्ध (1581 ई.): कुमाऊँ के शासक रुद्रचन्द को पराजित किया।
5. मान शाह (44वाँ शासक, 1591-1611 ई.)
- अत्यंत पराक्रमी शासक। इन्होंने तिब्बत और कुमाऊँ पर सफल आक्रमण किए।
- इनके दरबारी कवि भरत कवि ने “मानोदय काव्य” (संस्कृत में) की रचना की।
- जीतू बगड़वाल की कथा इनके समय से संबंधित है।
- कालो सिंह भंडारी इनके प्रमुख सेनापति थे।
6. श्याम शाह (45वाँ शासक, 1611-1631 ई.)
- मुगल सम्राट जहाँगीर के समकालीन। जहाँगीरनामा में इनका उल्लेख है।
- इनके समय में सती प्रथा का उल्लेख मिलता है (उनकी 60 रानियाँ सती हुई थीं)।
- श्रीनगर में श्यामशाही बागान लगवाया।
7. महिपती शाह (46वाँ शासक, 1631-1635 ई.)
- अत्यंत वीर और महत्वाकांक्षी शासक, लेकिन अहंकारी और क्रूर भी।
- इनके प्रमुख सेनापति थे – लोदी रिखोला, माधो सिंह भंडारी, बनवारी दास।
- तिब्बत और कुमाऊँ पर कई आक्रमण किए। माधो सिंह भंडारी ने तिब्बत विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- कुमाऊँ के कूंसी के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
8. पृथ्वीपति शाह (47वाँ शासक, 1640-1664 ई.)
- इनकी संरक्षिका रानी कर्णावती थीं, जिन्हें “नाक कटी रानी” के नाम से जाना जाता है (मुगल सैनिकों के नाक कटवाने के कारण)।
- इन्होंने मुगल शहजादे दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को शरण दी थी।
- देहरादून में पृथ्वीपुर नगर बसाया।
9. फतेहपति शाह (49वाँ शासक, 1664-1716 ई.)
- इनके शासनकाल को “गढ़वाल का स्वर्ण युग” कहा जाता है।
- इनके दरबार में “नवरत्न” थे, जिनमें रतन कवि (फतेह प्रकाश), मतिराम (वृत्त कौमुदी), जटाधर मिश्र प्रमुख थे।
- भंगानी का युद्ध (1688 ई.): सिरमौर के राजा मेदनी प्रकाश और गुरु गोविंद सिंह के साथ।
- कुमाऊँ पर आक्रमण कर अल्मोड़ा तक अधिकार किया।
- श्रीनगर में फतेहसागर का निर्माण करवाया।
10. प्रदीप शाह (52वाँ शासक, 1717-1772 ई.)
- इनके समय में रुहेलों ने कुमाऊँ पर आक्रमण (1743-44) किया, तब इन्होंने कुमाऊँ के शासक कल्याणचन्द पंचम की सहायता की थी।
- दून घाटी में प्रदीप नगर बसाया।
11. ललित शाह (53वाँ शासक, 1772-1780 ई.)
- कुमाऊँ पर आक्रमण कर अल्मोड़ा पर अधिकार किया और अपने पुत्र प्रद्युम्न चन्द (शाह) को वहाँ का शासक बनाया।
- इनकी मृत्यु मलेरिया से हुई।
12. जयकीर्ति शाह (54वाँ शासक, 1780-1786 ई.)
- इनके समय में राज्य में आंतरिक कलह और विद्रोह चरम पर थे।
13. प्रद्युम्न शाह (55वाँ शासक, 1786-1804 ई.)
- यह एकमात्र शासक थे जिन्होंने गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों पर शासन किया (कुमाऊँ में प्रद्युम्न चन्द के नाम से)।
- इनके समय में 1803 ई. में गढ़वाल में भयंकर भूकम्प आया।
- 14 मई 1804 को देहरादून के खुड़बुड़ा मैदान में गोरखाओं से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
14. सुदर्शन शाह (56वाँ शासक, 1815-1859 ई. – टिहरी रियासत)
- गोरखा शासन के बाद अंग्रेजों की सहायता से टिहरी रियासत की स्थापना की।
- राजधानी को श्रीनगर से टिहरी (1815 ई.) स्थानांतरित किया।
- इन्होंने “सभासार” नामक ग्रंथ की रचना की।
- मूरक्राफ्ट इनके समय में टिहरी आया था।
टिहरी रियासत के अन्य प्रमुख शासक
- भवानी शाह (1859-1871 ई.)
- प्रताप शाह (1871-1886 ई.): प्रताप नगर की स्थापना, अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत।
- कीर्ति शाह (1886-1913 ई.): कीर्ति नगर की स्थापना, कई सुधार कार्य किए। इन्हें अंग्रेजों ने “सर” और “कम्पेनियन ऑफ इंडिया” की उपाधि दी।
- नरेन्द्र शाह (1913-1946 ई.): नरेन्द्र नगर की स्थापना (1921), राजधानी स्थानांतरण (1925)। इनके समय में श्रीदेव सुमन का बलिदान (1944) और सकलाना विद्रोह (1947) हुआ।
- मानवेन्द्र शाह (1946-1949 ई.): टिहरी रियासत के अंतिम शासक। इनके समय में कीर्तिनगर आंदोलन (1948) और टिहरी राज्य प्रजामंडल की मांग पर 1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत का भारत में विलय हो गया।
पंवार शासन की प्रशासनिक और सांस्कृतिक व्यवस्था
- प्रशासन: राजा सर्वोच्च होता था। राज्य परगनों और पट्टियों में विभाजित था। फौजदार, कमीण, सयाणा जैसे अधिकारी होते थे।
- राजस्व: भू-राजस्व प्रमुख था। विभिन्न कर (जैसे सिरती, तिहाड़, मांगा) प्रचलित थे।
- कला और साहित्य: पंवार शासकों ने कला और साहित्य को संरक्षण दिया। भरत कवि (मानोदय काव्य), मतिराम, रतन कवि, चैतू, माणकू, मोलाराम जैसे कवि और चित्रकार इनके दरबार में थे।
- स्थापत्य: श्रीनगर, टिहरी, देवलगढ़ में कई मंदिरों और राजमहलों का निर्माण हुआ।
निष्कर्ष (Conclusion)
पंवार राजवंश ने गढ़वाल क्षेत्र में एक दीर्घकालिक और प्रभावशाली शासन स्थापित किया। अजयपाल द्वारा गढ़ों का एकीकरण, फतेहपति शाह का स्वर्ण युग, और प्रद्युम्न शाह का संघर्षपूर्ण काल इस वंश के महत्वपूर्ण अध्याय हैं। गोरखा आक्रमण के बाद टिहरी रियासत के रूप में इनका शासन भारत में विलय तक जारी रहा। पंवार शासकों ने गढ़वाल की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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